तुम बिल्कुल हम जैसे निकले!

arvind kejriwal and friend के लिए चित्र परिणामम आदमी पार्टी ने इस सप्ताह दूसरे राजनीतिक दलों की तरह क्षुद्रता और धोखेबाजी दिखा कर अपने कार्यकर्ताओं व समर्थकों को बहुत निराश किया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में पार्टी ने अपने दो सबसे सम्मानित सदस्यों को एक महत्वपूर्ण आंतरिक संस्था से बाहर कर दिया है।
इन दो लोगों, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण, ने बहुत विनम्रता और आदर-भाव के साथ पार्टी को शक्ति के बंटवारे के सिद्धांत पर अमल करने की बात कह कर केजरीवाल को नाराज कर दिया था।
केजरीवाल इस समय दिल्ली के मुख्यमंत्री और पार्टी के राष्ट्रीय प्रमुख हैं। (यह स्थिति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नहीं है और न ही कभी सोनिया गांधी के साथ रही है)। ‘आप’ के उन दोनों लोगों की राय के अनुसार, यह पार्टी के ‘एक व्यक्ति-एक पद’ सिद्धांत का उल्लंघन है, और इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है।
मीडिया को इस विवाद की भनक लग गयी थी, और ऐसा लग रहा था कि यह मसला अलग-अलग रूप में कुछ समय से सुलग रहा था। इस कारण पार्टी पर भी इस बारे में कुछ करने का दबाव था। इस महीने की दो तारीख को केजरीवाल ने मुद्दे पर अपनी बात ट्विटर के जरिये रखी। उन्होंने लिखा- ‘पार्टी में जो कुछ चल रहा है, उससे मैं गंभीर रूप से दुखी और आहत हूं। दिल्ली ने जो भरोसा हमें दिया है, उसके साथ यह विश्वासघात है। मैं इस भद्दे संघर्ष में शामिल होने से इनकार करता हूं। मैं सिर्फ दिल्ली के शासन पर ध्यान दूंगा। जनता के भरोसे को किसी भी हालत में टूटने नहीं दूंगा।’
इसमें ‘हम’ और ‘मैं’ का मिलान लाक्षणिक है।
इस भरोसे के साथ किसने विश्वासघात किया है? केजरीवाल के मुताबिक, ‘जो मांग कर रहे हैं, उनसे मैं विनम्रता से कह रहा हूं कि आम आदमी पार्टी निरंकुश नहीं बनी है।’ इस पूरे प्रकरण के दौरान इसमें शामिल होने से परहेज का दावा करनेवाले अरविंद केजरीवाल ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पर हमले का जिम्मा अपनी मंडली को दे दिया। इसमें दो पूर्व पत्रकार शामिल हैं- आशुतोष, जो एक बार एक खबर पर रोने के लिए मशहूर हैं, और आशीष खेतान, जो अपने आका की बातों में इस कदर आ गये कि उन्हें ट्विटर पर अपनी भाषा के लिए बाद में माफी तक मांगनी पड़ी।
कहावत है कि मुश्किल परिस्थितियों में भी मजबूत लोग आगे बढ़ते जाते हैं। केजरीवाल भी आगे बढ़े, और 10 दिनों की छुट्टी पर चले गये। उनसे बैठक तक रुकने और इस ‘अनुशासनहीनता’ पर निर्णय लेने का अनुरोध किया गया था, लेकिन योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण से निपटने की जिम्मेवारी उन्होंने अपने समर्थकों पर छोड़ दी। एक खबर के अनुसार, केजरीवाल इस मामले से खुद को ऊपर रख कर चल रहे थे, पर यह सही नहीं है, जैसा इस प्रकरण से जुड़े घटनाक्रम से दिख रहा है।
योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के साथ हुए अन्याय से दुखी होकर आम आदमी पार्टी के एक सदस्य ने उस बैठक की गतिविधियों का खुलासा किया है। दोषी ठहराये जा रहे दोनों लोगों ने केजरीवाल के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को प्रस्ताव दिया कि नीति-निर्धारक संस्था-राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी)- को बिना इन दोनों की सदस्यता के पुनर्गठित किया जाए (और इसमें दूसरों को शामिल कर इसका विस्तार भी किया जाए)। दूसरा विकल्प यह था कि समिति का वर्तमान स्वरूप कायम रहे, लेकिन ये दो लोग अपने को उसमें से हटा लेंगे और निष्क्रिय हो जाएंगे। दोनों ही प्रस्ताव तर्कपूर्ण समझौते थे।
बहरहाल, बैठक कुछ देर के लिए स्थगित की गयी, जिसके दौरान, खबरों के मुताबिक, केजरीवाल से फोन पर सलाह किया गया। उसके बाद मतदान कराया गया और बहुत ही कम अंतर से दोनों को हटाने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया। हिंदुस्तानी मिजाज के अनुसार केजरीवाल खेमे को लगा कि यह अपमान बहुत है। परंतु वे गलत थे।
दोनों लोगों, यादव और भूषण, ने बहुत ही सम्मानजनक तरीके से व्यवहार करते हुए अपनी शिकायतों को मीडिया में ले जाने की कोशिश नहीं की। इस कारण सारी सहानुभूति उनके हिस्से में चली गयी। लेकिन, केजरीवाल के लिए असली समस्या कहीं और है।
इस प्रकरण की भद्द और कटुता ने पार्टी की सबसे कीमती संपत्ति- स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं के आधार- को नुकसान पहुंचाया। यही आधार इसे अन्य राजनीतिक समूहों से अलग बनाता है। ये स्वयंसेवक मध्य वर्ग से हैं और इन गतिविधियों के प्रति उदासीन नहीं हैं। वे क्षुब्ध हैं और अपनी भावनाओं को ट्विटर और फेसबुक जैसे प्रभावी माध्यमों के जरिये अभिव्यक्त कर रहे हैं।
जब केजरीवाल खेमे को अपनी गलती का अहसास हुआ, तब वे चुप हुए। आशुतोष और खेतान ने सोशल मीडिया पर अपना आक्रामक रुख बंद किया। इसमें संदेह नहीं है कि यह सब केजरीवाल के निर्देश पर हुआ। मुख्यमंत्री की चुप्पी अब भी बरकरार है, लेकिन दिल्ली लौटने पर उन्हें अपने पहले के बयान के उलट इस मसले मेंहस्तक्षेप करना होगा।
मुझे ‘आम आदमी पार्टी’ के दंभ भरे रवैये से हमेशा दिक्कत रही है।
बाकी सभी पार्टियों को भ्रष्ट और सिद्धांतहीन कहने तथा सिर्फ खुद को आदर्शवादी बताने के उनके दावे की विश्वसनीयता इस सप्ताह समाप्त हो गयी है। दूसरी बात ‘आप’ के स्वराज के विचार को छोड़ देने की है, जिस पर उन्होंने अपना पहला चुनाव लड़ा था (लेकिन इस बार के चुनाव में यह बात दबी जुबान से ही की जा रही थी)।
इस विचार के अनुसार सत्ता आस-पड़ोस और मोहल्ले तक विकेंद्रित होनी चाहिए तथा आम नागरिक और मतदाता को यह निर्णय का अधिकार होना चाहिए कि सरकारी धन कहां एवं कैसे खर्च किया जाए। मुझे समझ में नहीं आ रहा रहा है कि स्वराज के इस विचार में मौजूद ‘स्व’ कौन है, क्योंकि ऐसा लगता है कि इसका मतलब केजरीवाल और उनका शासन है, जिसको लेकर वे सर्वाधिक चिंतित नजर आ रहे हैं।

पार्टी के सबसे सुचिंतित (और मेरी राय में सबसे बुद्धिमान नेताओं में से एक) नेता योगेंद्र यादव से भय का अनुभव करना अरविंद केजरीवाल के बारे में परेशान करनेवाला संकेत है। यह घटना यह भी बताती है कि मेरी अवसरवादी दोस्त शाजिया इल्मी सही थीं। पार्टी छोड़ते समय उन्होंने कहा था कि यह पार्टी कई अर्थो में तानाशाही है। तब हम उन पर हंस रहे थे, पर आज यह कौन कह सकता है कि वह गलत कह रही थीं?

No comments:

Post a Comment

INSTAGRAM FEED

@soratemplates